हर सुबह एक ढलते सूरज कि तरह उठता है,
वो लड़का बोरी में घर का बोझ लिए चलता है।
उस कूड़े के ढेर में,अपनी किस्मत टटोलता है,
चंद सिक्कों को पा कर वो फूला न समाता है।
वो लड़का बोरी में घर का बोझ लिए चलता है।
फटा हुआ सा जामा और नंगे पाँव चलता है,
अपने हाल को छुपाता वो इसे कर्तव्य बताता है।
वो लड़का बोरी में घर का बोझ लिए चलता है।
न वो पढ़ने जाता है, न बचपन जी पाता है,
अपने ख्वाबों को ख्वाब ही बना कर जी जाता है।
वो लड़का बोरी में घर का बोझ लिए चलता है।
हर सांझ किसी दोपहरी सा जलता है,
फिर रोज़ रात वो बेउम्मीद सा ढलता है।
फिर दोबारा सुबह ढलते सूरज सा उठता है।
वो लिए बोरी में घर का बोझ लिए चलता है!!!.....
No comments:
Post a Comment